सुमित्रानन्दन पन्त


 सुमित्रानन्दन पन्त जी का अवतरण और व्यक्ति त्व
 
कुर्मांचल का बसंत पुराने पत्तों का झरना, नई कोंपलों का जन्म लेना इस परिवर्तनशील प्रकृति के प्रांगण में न जाने किन गुह्य शक्तियों से प्रेरित होकर, कुमायूं की अनिंद्य सौंदर्य स्थली कौशांबी में एक भारद्वाज गोत्री य ब्राह्मण के घर जन्म और मरण ने आंख मिचोली खेली जब 20 मई 19 सौ तदनुसार विक्रम संवत 1957 जेष्ठ कृष्ण षष्टी को प्रातः 8:09 बजे के मध्य शिशु पंत को प्राणों का संबंल देकर मातृ चेतना अंतर्हित हो गई |
 
हिमकिरीट शिखरों की गगनचुंबी स्निग्ध शोभा से मंडित मरकत मणि सा कौशांबी ग्राम आरोही हिमगिरी के चरणों पर श्रद्धा बनत सा अवस्थित लगता है यह चीर के लंबे वृक्षों देवदारू और बांस के घने वनों की हरीतिमा तथा बुरुश के मधु छतों के समान फूलों की लालिमा से आच्छादित रंग-बिरंगे वनफूलो तथा वन पक्षियों से भरी विशाल आधितयका अल्मोड़ा के अंतर भाग से उससे 32 मील उत्तर की ओर स्थित है समुद्र की सतह से साडे 7000 फीट की ऊंचाई पर बसी हुई यह रम्य स्थली वसंता गम मैं अपने रूप से अनजान नवमुगधा की सदयसफुट शोभा से वेषटित हो जाता है उसका उन्मुक्त प्राकृतिक सौंदर्य स्वतः ही मंत्रमुग्ध कर देता है |

पंत जी की मां ने इसी बसंत ऋतु में उन्हें अपनी मूर्छित अवस्था में जन्म दिया और उसी अवस्था में सदैव के लिए उन्होंने आंखें मूंद ली मां अपने बालक को एक बार देख भी ना पाए प्यार ना कर पाए अपने आंचल का दूध ना पिला सके विधना के इस निर्मम आघात को जैसे कौशांबी की ममतामई सम दृष्टि प्रकृति सह न सकी बालक के लिए दयाद होकर वह मूर्ति मती हो उठी उसने उसे अपने विशाल स्नेही अंक का प्रश्रय ही नहीं दिया वरण वह सब भी दिया जो कि एक स्नेहठील धात्री दे सकती है पंत के लिए प्रकृति ही माता पिता भाई सखा शिक्षक एवं प्रेमिका सभी बन गई।

"माँ से बढ़कर रही धात्री तू बचपन में मेरे हित
धात्री कथा अपकभर तूने किया जनक बन पोषण।
मात्र हीन बालक के सिर पर वरद हस्त धर गोपन |"


प्रकृति का सम्मोहन उन्हें भाव मुग्ध कर देता वे उसी के वश में होकर उसमें घुल मिल जाते यह आत्मविस्मरण ही प्राकृतिक सौंदर्य का बोध या नैसर्गिक आनंद था, यही एक मात्र सत्य था, जिसका वे घंटों में निरनिमेष पान किया करते। स्वयं को अपने घर द्वार मात्र हीन बचपन क्षुधा तृषना सभी को भी भूल जाते, सभी से दूर बहुत दूर उनका मन वहां विचरण करने लगता जहां मात्र अदृश्य अज्ञात सत्ता का रहस्यमई सौंदर्य प्राणों को आलहादित कर देता ।            
                 
बड़े सरल सुखद और मुग्धकारी थे कौशांबी के दिन पिता की आंखों का तारा, बुआ के सुने नभ का चन्दा, दादी का सर्वस ! उस पर मातृहीन और सबसे छोटा । सभी का लाडला बन गया। बड़ी बड़ी भोली आंखें जो अधिकतर नीलाकाश में खोकर चांद सितारे खोजने लगती, गोरा रंग गदबदा बदन, स्मित अधर, मुलायम सुनहरे बाल सभी को मोह लेते थे उसके रेशमी बालों पर बुआ और बहनों को गर्व है |

नवनीत सी कोमल, सरल गोरी दादी देवकी तो सांझ की आरती बालक को गोद में लेकर ही करती और मां लक्ष्मी सर्वप्रथम गुनगुनाना या गाना दादी का ही अनुसरण कर सीखा था। आरती को जाने पर बालक काशी अपनी गोद में लेकर उसे थपथपाते हुए दंत कथाएं सुनाती तथा देवी देवताओं की आरती के गीत गाती। बड़ी परिहासपिरय है दादी पोते के साथ स्वयं भी बच्चा बन जाती है,खुब हंसती हंसाती है।

पंत जी बचपन से शांतिप्रिय थे अन्य लड़कों की भांति लड़ना झगड़ना मारपीट आदि से कोसों दूर रहते थे सन उन्नीस सौ पांच में गांव की पाठशाला कौशांबी वर्ना क्युलपर स्कूल की ब कक्षा में पंत का नाम लिखवा दिया गया वे होनहार थे क्लास में प्रथम स्थान प्राप्त करते थे संस्कृत की शिक्षा का प्रारंभ पंत को फूफा जी ने कराया 19०७ से १९०९ के बीच उन्होंने अमरकोश, मेघदूत, राम रक्षा स्त्रोत, चाणक्य नीति आदि के अतिरिक्त अन्य अनेक श्लोको का ज्ञान भी प्राप्त करा दिया। एम,ए के द्वितीय वर्ष से अपने कॉलेज की शिक्षा बंद कर दी, तत्पश्चात घर पर रहकर ही अंग्रेजी, बंगला तथा संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया | जन्म से ही शांत और एकांत प्रिय व्यक्ति हैं प्रकृति के खुले अंचल में घंटों बैठे रहना और उसी के निरीक्षण में आनंद प्राप्त करना आपके स्वभाव का एक अंग रहा है | आपने जीवन भर अविवाहित रहने का संकल्प लिया |

पन्त जी का प्रकृति प्रेम
 
बरसात बीतने पर चिरंतन मुग्धा की शोभा में कौशांबी खिल उठती अपने अर्ध विकसित मुकुलो की चितवन बरसाने वाली रंग प्रिय फूलों की घाटी पंख खोल कर अप्सरा सी उड़ती प्रतीत होती अपने अवगुण्ठन में  सदैव मुस्कुराती हुई यह अपने सौंदर्य और सौरव का आस्वादन अपने प्रेमी बालक के हृदय को सहज ही करा देती | उसकी शरद के दूध से धूलि लुनाई, सजीव शुभ्र सुंदरता, रोमांचित हरीतिमा और सलज्ज मुस्कान ने पंत के निश्चल हृदय को एक अनजान क्षण में चुरा लिया / वशीभूत बालक सौंदर्य के चरणों पर पूर्ण समर्पित हो गया | अद्भुत था वह समर्पण ! अद्भुत उसकी अनुभूति ! अनुपम उसकी एक निष्ठता। पंत का संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व उसी का प्रतिरूप और अनुगूंज मात्र है | आयु की प्रौढता के साथ इस अनुभूति को उन्होंने विभिन्न भाव विचारों और दृष्टिकोण में प्रस्तुत किया है | पंत यदि आज कुछ है तो प्रकृति के प्रकृति में छिपी हुई गुप्त चेतना के गायक हैं प्रौढ़ पंत की मुक वेदना अपनी जन्मभूमि में आकर मुखर हो उठती है /

"बाल प्रवासी शिशु घर लौटा,
वह भी क्या अभ्यागत !
स्नेह उचछवसित,हेमज पुलकित
अंचल का शरणागत  | "


यौवन की प्रथम उमंग में स्थूल रूप जनित सुख की ओर अग्रसर होने के विपरीत पंत घबराकर कहते हैं /

"बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लोचन"

कविता प्रकृति का सौंदर्य धारण कर उसे वशीभूत कर लेती है /

"प्रथम चरण था नवयौवन का, 
शोभा स्वप्नों से दृग अपलक 
देही घर लाई हो कविता
रूप शिखा सी नख से शिख तक।"


/ विरहिणी परिचछेद के अन्तर्गत सुख-दुख की जो व्याख्या उपन्यासकार प्रस्तुत करता है वह पंथ के संपूर्ण व्यक्तित्व समस्त कृतित्व का प्रतिबिंब है। "दुख ही सत्य है" सुख नहीं इस क्षणिक सुख में

"वृद्ध जनक थे , पक्व निधन था,
अब मैं था, मन था दुख का वन,
लाज से रक्तिम हुए थे पूर्व को
पूर्व था, वह अद्वितीय अपूर्व।"


गृंथि / स्वयं सब भांति प्यासा रह कर भी वह कहता 

"शैवलिनी ! जाओ मिलो तुम सिंधु से
अनिल ! आलिंगन करो तुम गगन का
चंद्रीके ! चुमो तरंगों के ऊपर
उडुगणो ! गाओ पवन वीणा बजा "

प्रकृति एवं नारी की सुकुमार कोमल छवियों में !

"अरे यह पल्लव बाल , अरि सलील सी रोल हिलोर
सिखा दो ना , है मधुप कुमारी मुझे भी अपने मीठे गान।" 


कवि बाल विहंगिनि से उसके कोमल गाने का भेद पुंछता है:- 

"पृथम रश्मि का आना रागिनी तूने कैसे पहचाना ।
कहो कहां है बाल विहंगिनि पाया तूने यह गाना। "


इस प्रकार पंत जी अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी थे | 
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